“झूठक झालि: मैथिली कथा”
अदहा चैत बीत गेल मुदा चैतक जेहेन उष्णता चाही ओ अखन तक मौसममे नहि आएल अछि। जेना आन साल फगुआक पराते लोक अपन-अपन सिरको आ कम्बलोकेँ रौद लगा, समेट कऽ ऐगला जाड़-ले बान्हि कऽ रखि लइ छला, से ऐ बेर नहि भेल। ओना, पहिनौं केतेक साल एहेन होइते छल जइमे जाड़ किछु बिलंमसँ हटने सिरक-कम्बल किछु बिलम्ब धरि लोक ओढ़ै छला, मुदा से गोटे-गोटे साल एहेन होइत छल। ऐ बेरक समय तइमे बीस पड़ल। तेकर कारण भेल जे एक तँ शीतलहरी फगुआ तक धेने रहल, दोसर शीतलहरी हटिते तेहेन जनमारा बरखा भेल जे जाड़केँ आरो आगू बढ़ा देलक। अनधुन पाथरो खसल आ पछिया हवा सेहो धुर-धार पकैड़ लेलक जइसँ जाड़क तेते बढ़ोत्तरी भऽ गेल जे अखनो घूर तापब आ सिरक-कम्बल ओढ़ब अनिवार्य बनले अछि। से खाली लोके आ माले-जालक संग भेल, सेहो बात नहियेँ अछि। मौसमक रूप बदलने आमो आ रब्बियो-राइक संग भेल। आन साल चैती दुर्गाक समय, जे अदहा चैतक पछाइत पड़इ छल, आमोक टुकला तेहेन भऽ जाइ छेलै जे लोक चटनियो आ कुच्चो-अँचार खाइ छल से ऐ बेर आमक मोजरो अखन तक ओहिना अछि। मड़ुआ भरि-भरिक दाना बनल अछि। तहिना गहुमोक अछि। आन साल चैती दुर्गाक समय धुर-झाड़ गहुमक तैयारियो चलै छल आ खेतसँ कटियो गेल रहै छल। मुदा ऐबेर से नहि, ऐबेर कोला-कोली गोटे-गोटे खेतक गहुम कटल अछि बाँकीमे ओहिना लगल अछि। लगल कि अछि जे तेहेन बर्खा-पानिक संग पाथर खसल जे खेतक-खेत गहुम चुरम-चुर भऽ गेल।
मौसमक विकरालता रहने विवेक विहारी काकासँ चारि-पाँच माससँ भेँट नहि भेल, तँए मन उबिया रहल छल। मुदा मन उबियेनहि की, समयमे तेते ठण्ढ छेलै जे घरसँ निकलैक हिम्मते ने हुअए। ओना, पचहत्तैर बर्खक विवेक विहारी काका अखनो शरीरसँ एहेन फेहम छैथ जे नीक समय रहने सभ दिन एक बेर-दू बेर सौंसे गाम घुमैत छला मुदा सरदीसँ एलर्जी रहने आनो साल घुमैसँ परहेज करिते रहैथ। ऐ बेर तँ सहजे तेतेक सरदी पड़ि रहल अछि जे दरबज्जा छोड़ि केतौ नहि जाइ छैथ।
चैती दुर्गाक आइ तेसर पूजा छी माने चैत शुक्ल पक्षक तृतीया छी। ठण्ढ रहितो लोकमे, खास कऽ स्त्रीगण आ धिया-पुतामे पूजाक उत्साह जगिये गेल अछि।
अपनो मनमे भेल जे एहने-एहने समयमे ने बुढ़ो-पुरान आ धियो-पुतो ठण्ढसँ मरिते अछि। तहूमे चैती जाड़ छी जे सोझे हाड़मे गड़ि शरीरकेँ थरथरबैए। मनमे भेल जे जँ कहीं विवेको विहारी काका जाड़सँ अक्रान्त भेला आ मरि गेला तखन तँ मन लगले रहि जाएत जे मरैसँ चारि-पाँच मास पहिनहिसँ काका भेँट नहि भेल छला। नीक समय रहने एकबेर-दूबेर सभ दिन एकठाम बैस गपो-सप्प करै छेलौं आ बहुत बात सिखतो छेलौं…।
विवेक विहारी काकासँ भेँट करैले मन तेते उबिया गेल जे मने-मन विचारि लेलौं जे आइ किछु हएत मुदा काकासँ भेँट करबे करबैन। ओ ने बुढ़ छैथ तँए घरसँ नइ निकलै छैथ, मुदा अपने तँ से नहि छी।
चाह पीब विवेक विहारी काकासँ भेँट करए विदा भेलौं। घरसँ निकैलते मनमे उठल जे देखिते काका कहबे करता जे हम ने बुढ़ भेलौं तँए घरसँ जाड़क दुआरे नइ निकलै छी मुदा तोंहू जबान रहितो सहए भेलह। फेर अपने मनमे बहन्नो सुझि गेल जे जँ से कहता तँ कहबैन जे काका समय खराब भेने काजक समय घटिये जाइए, मुदा परिवारक जे सबदिना काज अछि ओ तँ केलाक पछातिये ने परिवारक गाड़ी आगू मुहेँ ससरत। तइ संग ईहो मनमे भेल जे जखने तर्कपूर्ण बहन्ना करब तँ ओ बिसवास कइये लेता। मन हल्लुक भऽ गेल।
विवेक विहारी काका-ऐठाम पहुँचते देखलौं जे काका सिरक ओढ़ि दरबज्जाक चौकीपर मुँह झाँपि बैसल किछु सोचि रहल छैथ। दरबज्जापर पहुँचते बजलौं-
“काका, गोड़ लगै छी..!”
आवाज सुनि मुँहपर सँ सिरक खसका काका बजला-
“नीके रहह। बहुत दिनक पछाइत तोरासँ भेँट भेल।”
बजलौं-
“काका, समये तेहेन भऽ गेल अछि जे घरसँ निकलब कठिन भऽ गेल अछि, तँए नइ भेँट होइ छेलौं।”
विवेक विहारी काकाकेँ जेना विचारक बाण सुतरलैन तहिना बजला-
“एहने समयमे ने धियो-पुतो आ बुढ़ो-बुढ़ानुसक ताक-हेर जरूरी अछि, तैठाम जँ अनठा देबहक तखन तँ अनेरे ने ओ मरबे करत।”
कक्काक बात सुनि अपने निरुत्तर भऽ गेलौं तँए विचारकेँ बदलैत बजलौं-
“नीक समय रहह आकि अधला, कमसँ कम एते तँ भेबे कएल जे ओ कटि गेल।”
मुड़ी डोला हमर बात तँ काका स्वीकारि लेलैन मुदा जेना मनमे कोनो बात–विचार–नाचि रहल छेलैन तहिना ओइ विचार दिस पुन: मन बढ़ए लगलैन। अपना बुझि पड़ल जे भरिसक काका कोनो विचारमे ओझराएल छैथ। अनायास विवेक विहारी कक्काक मुहसँ व्यंगपूर्ण मुस्कियो आ मुस्कीक संग आवाजो निकललैन-
“झूठक झालि बजौनिहार चाटुकार सबहक चाटुकारिता कि कोनो आइयेक छी, सभ दिनसँ होइत आबि रहल अछि। अखनो अछि आ आगूओ होइत रहत।”
अपना जनैत विवेक विहारी काका हमरा सुना कऽ बजला आकि अपन विचारक दौड़मे बजला से ओ जानैथ मुदा सुनलौं तँ हमहूँ। बजलौं-
“से की काका?”
विवेक विहारी काका बजला-
“नारदक नाओं सुनने छहक?”
बजलौं-
“किए ने सुनने रहब। वएह नारद ने जे घरबलाकेँ कहलखिन- तोहर घरवाली तोहर देह चटै छह आ घरवालीकेँ कहलखिन जे तोहर पति नोना गेल छथुन तँए दुनू गोरेमे जे प्रेम हेबा चाही से नहि छह।”
हमर बात सुनि कक्काक मनमे जेना भीतरसँ खुशीक गुदगुदी लगलैन तहिना हँसैत बजला-
“तोरा हिसाबे नारद केहेन छला?”
बजलौं-
“काका, नारद नमरी झगड़लगौन छला। जखन दुनू परानी तककेँ नहि छोड़ै छेला तखन दू परिवार आ दू समाजकेँ छोड़ि सकै छला..!”
अपना विचारे माने कानक सुनल विचारे हम बजै छेलौं आ चिन्तनक हिसाबे काका पुछि रहल छला तँए सबाल-जवाबमे केतौ मेल नहियेँ खाइ छल। ओना, काका दुनू बात–माने अपन कानक सुनल बात आ चिन्तनक बात–जानि रहल छैथ मुदा अपने तँ खाली सुनलेहे बात टा जनै छी, तँए अपन विचारकेँ दृढ़तासँ पकड़ने छेलौं। काका बजला-
“नारद देवलोकोमे बास करै छला आ मर्त्तलोकमे सेहो घुमै छला।”
बजलौं-
“हँ, से तँ छेलाहे। देवलोक-सँ-मर्तलोक तक प्रतिदिन टहलै छला। मर्तलोकक संवाद देवलोकोमे पहुँचबै छला आ देवलोकक संवाद मर्तलोकोमे लोककेँ कहै छेलखिन।”
हमर बात सुनि विवेक विहारी काका भभा कऽ हँसला। हँसी रोकि बजला-
“बौआ श्याम, नारद पुराण पुरुष छैथ, माने पौराणिक पात्र। हुनक देल अमूल्य रत्न अछि। ओइ अमूल्य रत्नकेँ झाँपैक खियालसँ रंग-बिरंगक कथा गढ़ि झूठक झालि बजौनिहार चाटुकार सभ हुनका बदनाम करैत आबि रहल अछि।”
कक्काक बात सुनि अपनो मन ठमकल। ठमकैक कारण भेल जे अपने की बुझै छी आ काका की कहि रहला हेन..! बजलौं-
“से की काका?”
विवेक विहारी काका बजला-
“बौआ, नारद चौरासी टा विचार सूत्रक प्रतिपादन केलैन। जे चौरासियो सूत्र मनुक्खक जिनगीक चौरासी आसन छी, माने जीवन जीबाक चौरासी टा कला..!”
अखन तक जे नारदक प्रति अपन धारणा मनमे बनल अछि, ठीक ओकर विपरीत विचार विवेक विहारी कक्काक सुनि बजलौं-
“चौरासी आसन की कहलियै काका?”
विवेक विहारी काका बजला-
“अखनो गाम-घरमे लोकक मुहेँ सुनै छह कि नहि जे चौरासी आसनसँ जीवन चलैए।”
बजा गेल-
“हँ, से तँ सुनै छी..!”
विवेक विहारी काका बजला-
“यएह चौरासी आसनक सृजन नारद केने छैथ। जेकरा घटिया कहक आकि झूठक झालि बजौनिहार चाटुकारक चाटुकारी कहक, ओही महत्वपूर्ण ज्ञानकेँ दबबाक षडयंत्र झूठ बजनिहार चाटुकारसभ सभ दिनसँ रचैत-करैत आबि रहल अछि आ अखनो रचै-बजैए।”
बजलौं-
“ऐ सँ झूठ बजनिहार चाटुकार सभकेँ की भेटै छै?”
विवेक विहारी काका बजला-
“अपन मरनमुख विचारकेँ जीवनमुख विचार बना समाजकेँ गुमराह करैत, माने धोखा दैत आबि रहल अछि। जइसँ समाज पथ-भ्रष्ट बनि जिनगीक स्वस्थ पथसँ विमुख भऽ दिशाहीन होइत आबि रहल अछि।”
कक्काक विचार सुनि अपनो मनक मैल, माने अज्ञानता जेना कमए लगल तहिना भक् खुजि गेल। तैबीच विचारकेँ आगू बढ़बैत विवेक विहारी काका पुछि देलैन-
“कालिदासक नाओं तँ सुननहि छह?”
कहलयैन-
“हँ। आइ कि बच्चेसँ सुनैत आबि रहल छी जे कालिदास एहेन छला जे जेही डारिपर चढ़ल छला तेही डारिकेँ जड़िसँ काटै छला।”
हमर बात सुनि विवेक विहारी काका फेर भभा कऽ हँसला। हँसी रोकि बजला-
“एकर माने यहए ने जे कालिदास सन मूर्ख ऐ धरती पर दोसर नहि भेल अछि?”
ओना, कक्काक विचारक प्रवाहमे अपने नहि भँसलौं। माने ई नहि कहलयैन जे ‘हँ, हुनका सन मुर्ख दोसर नहि भेला’, किए तँ कालिदासक सम्बन्धमे ईहो बुझल अछि जे ओ महापण्डित छला। अनेको महान-महान कृति- मेघदूतम्, कुमारसम्भवम्, रघुवंशम्, मालविकाग्निमित्रम्, विक्रमोर्वशीयम्, अभिज्ञानशाकुनतलम् इत्यादि रचना सेहो केने छैथ आ राजा विक्रमादित्यक दरबारमे नवरत्नमे एक रत्न सेहो छला। बजलौं-
“ओ महापण्डित छला तँए मूर्ख केना मानबैन?”
विवेक विहारी काका बजला-
“जे आदमी जइ डारिपर चढ़ल रहत ओइ डारिकेँ जँ जड़िसँ काटत, ओहन काटनिहारकेँ लोक की बुझत?”
असमंजस में पड़ि गेलौं। किए तँ ईहो बात बुझले अछि जे जइ डारिपर छला ओकरो कटितो छला। तैसंग ईहो बुझले अछि जे ओ महापण्डित छला। बजलौं-
“शुरूमे ओ मुरुखपन काज केने मुरुख छला, पछाइत सरस्वतीक असिरवादसँ विद्वान भेला। विद्वान भेला पछाइत अमूल्य कृति सबहक रचना केलैन।”
कालिदासपर सँ धियान हटबैत विवेक विहारी काका बजला-
“हमहीं महाविद्यालयक शिक्षण कार्य किए छोड़लौं से बुझल छह?”
बजलौं-
“जखन बेटा कमाए लगला तखन अपने कमाएब छोड़ि देलौं। सएह ने?”
मुस्कुराइत विवेक विहारी काका बजला-
“नइ, ई बात नइ छी।”
बजलौं-
“तखन, की बात छी?”
विवेक विहारी काका बजला-
“जाधैर अपन विचार परिपक्व नहि भेल छल ताधैर नीक-बेजाए सभ बजै छेलौं, मुदा जखन विचार परिपक्व भेल तखन विचारमे दृढ़ता आनि निश्चय केलौं जे ने अधला (गलत) काज करब आ ने अधला विचार मुहसँ निकालि दोसरकेँ देब।”
विवेक विहारी कक्काक विचार नीक जकाँ माने स्पष्ट रूपेँ नहि बुझि, बजलौं-
“काका, कनी खरियारि कऽ कहियौ। नीक जकाँ नहि बुझि पेलौं।”
हमर जिज्ञासा देखि आकि की, विवेक विहारी काका हँसए लगला। ओना, हुनकर हँसी देखि अपना मनमे कनी-मनी शंको हुअ लगल जे कहीं हमर विचारे ने ते उनटा-पुनटा भऽ गेल जइसँ काका हँसि रहल छैथ! मुदा से नहि, ओ विचारक गम्भीरताकेँ पकैड़ बजला-
“श्याम! ओना अपने जखन पढ़िते रही तहियेसँ झूठ बजैक परहेज करए लगलौं। मुदा की झूठ की सच से नहि बुझि पबैत रही, तँए बहुत झूठो बजाइ छल, मुदा जहियासँ झूठ-सच बुझैक ओकाइत भऽ गेल माने झूठ-सच बुझैक क्षमता भऽ गेल तहियासँ झूठ बजैक सोल्होअना परहेज कऽ लेलौं।”
ओना, अपना जनैत काका समीचीन उत्तर देने छला, मुदा अपने नीक जकाँ बुझिये ने पेलौं। पुछलयैन-
“काका, नीक जकाँ अपनेक विचार नहि बुझि पेलौं।”
विवेक विहारी काका बजला-
“श्याम, शुरूमे–माने नोकरीक शुरूमे–जखन बच्चा सभकेँ पढ़बै छेलौं तखन सिलेवसमे जे पोथी उपलब्ध छल ओही आधार पर पढ़बै छेलौं, मुदा जखन पोथीक नीक-अधलाक बोध भेल, तखन विचार अपने मनमे टकराए लगल। एक दिस जे सिलेवसमे अछि वएह पढ़बऽ पड़त आ दोसर दिस अपन मन धिक्कारऽ लगल जे बच्चा सभकेँ सज्ञानक बदला अज्ञान बना रहल छी, जे अपना जनैत अनुचित भऽ रहल अछि। तँए नोकरी छोड़ि देलौं।”
विवेक विहारी कक्काक विचार सुनि मन जेना शान्त भऽ गेल। बजलौं-
“काका, अखन तक ई बात नहि बुझै छेलौं तँए गलत धारणा मनकेँ जमि कऽ पकड़ने छल।”
अपन उपलब्धि आकि विचारक प्रभावसँ विवेक विहारी कक्काक मन जेना उत्फुलित भेलैन तहिना फूलक कली जकाँ मुँह मुस्किएलैन। बजला-
“बौआ श्याम, मण्डन मिश्रकेँ जनै छुहुन?”
बजलौं-
“हँ।”
काका बजला-
“केना जनै छुहुन?”
बजलौं-
“वएह मण्डन मिश्र ने जिनकर सुग्गो संस्कृतेमे बजै छेलैन।”
काका बजला-
“हँ, आरो किछु?”
बजलौं-
“ओ अपन मैथिल अद्वैतवादी विद्वान छला। जे शंकराचार्यसँ शास्त्रार्थमे पराजित भेला।”
‘शंकराचार्यसँ शास्त्रार्थमे पराजित भेला’ सुनि कऽ आकि की, एकाएक विवेक विहारी कक्काक चेहराक रंग मलिन हुअ लगलैन। जेना नान्हिटा मेघक टुकड़ी, माने बादलक टुकड़ी सूर्यक प्रखर रौदकेँ किछु क्षणक लेल झाँपि दइए तहिना भेलैन। मुदा अपन आक्रोशकेँ ऐ दुआरे नहि व्यक्त केलैन जे ओ हमरा अबोध बच्चा बुझै छैथ। मनमे भेल हेतैन जे श्याम अपन अध्ययनक बले नहि, केकरो मुँहक सुनल बात बाजि रहल अछि…। बजला-
“बौआ, भरिसक तूँ कोनो झूठ बजनिहार चाटुकारक मुँहक सुनल बात बुझै छह।”
कक्काक बात सुनि मनमे भेल जे ठीके काका बुझि रहला अछि, किए तँ अपने मण्डन मिश्रक कोनो रचना तँ अखन तक पढ़नौं ने छी, मनन-चिन्तनक कोन बात..! बजलौं-
“काका, एकटा पण्डीजी बाजल छेला, सएह सुनलो अछि आ मोनो अछि। सएह बजलौं।”
तुरैछ कऽ विवेक विहारी काका बजला-
“ओ मुफ्तक चूरा-दही खाइबला हेता, तँए एहेन बात बजला।”
बजलौं-
“तखन?”
विवेक विहारी काका बजला-
“ओना, कतेको विद्वतजन ऐ विचारकेँ झूठ साबित केने छैथ। मुदा अखन बहुत नहि, खाली दूटा विद्वानक विचार कहै छिअ। पहिल डॉक्टर वैद्यनाथ झाक, जे अम्बेदकर विश्वविद्यालयमे संस्कृतक विभागाध्यक्ष छला आ दोसर डॉक्टर तारानन्द ‘वियोगी’क विचार कहै छिअ।”
ओना, दुनू गोरे–माने डॉक्टर वैद्यनाथो झा आ तारोनन्द ‘वियोगी’क नाओं सुनल अछि मुदा हुनकर लिखल विचार बुझल नहि अछि। बजलौं-
“हँ, कहियौ।”
विवेक विहारी काका बजला-
“डॉक्टर वैद्यनाथ झा, जे राष्ट्रपति सम्मानसँ सम्मानित छैथ, ओ अपन पोथी ‘मण्डन मिश्र श्रद्धा-कुसुमाञ्जलि:’मे साबित केने छैथ जे मण्डन मिश्र आ शंकराचार्यक बीच कहियो शास्त्रार्थ भेबे ने कएल, तहिना डॉक्टर तारानन्द ‘वियोगी’ अपन पोथी ‘मण्डन मिश्र और उनका अद्वैत वेदान्त’ मे सेहो काफी चिन्तन-मनन केलाक पछाइत लिखने छैथ जे झूठ चाटुकार सबहक सभटा खेल छी।”
पहिल-पहिल दिन दुनू पोथीक नाओं सुनलौं। अपन पढ़ल दुनूमे सँ कोनो नहि अछि मुदा विवेक विहारी काकापर एते बिसवास तँ जमले अछि जे जे आदमी झूठ बजैक विरोधमे अपन जीविका छोड़ि सकै छैथ ओ झूठ किए बजता, तँए मन मानि गेल जे काका जे कहि रहला हेन ओ सोल्होअना सत् कहि रहला अछि। बजलौं-
“ओऽऽऽ..! ई बात अछि..!”
काका बजला-
“एहेन झूठ बजनिहार कि कोनो आइये अछि, सभ दिनसँ आबि रहल अछि। एकटा बात आरो कहि दइ छिअ। ओना, समयो बहुत बेसी भऽ गेल अछि विचारो बहुत भेल।”
बजलौं-
“काका, मन तँ होइए जे आरो सुनी मुदा नहाइ-खाइ-पीबैक समय भऽ गेल। खाएर जे भेल से भेल मुदा जे बजैक मन बनि गेल अछि ओ कहि दिअ।”
विवेक विहारी काका बजला-
“तुलसी दासक नाओं सुनने छह?”
बजलौं-
“हँ! तुलसी दास कि कोनो हेराएल साधक छैथ। हुनकर लिखल रामायण ‘रामचरित मानस’ रखनौं छी आ कहियो-कहियो पढ़बो करै छी।”
विवेक विहारी काका बजला-
“हुनका विषयमे की सभ बुझल छह?”
कक्काक बात सुनि अकबका गेलौं। अकबकाइक कारण ई भेल जे तुलसीदासक रचना ‘रामचरित मानस’ तेहेन रचना अछि जे दुनियाँक अधिकांश भाषामे ओकर अनुवाद सेहो भेल अछि आ एक-सँ-एक श्रेष्ठ विद्वान प्रशंसो केने छैथ, तइमे काका की पुछि रहल छैथ..! बजलौं-
“काका, तुलसीदासक कि कोनो एक्केटा बात छैन। ओ तँ अथाह समुद्र जकाँ ‘रामचरित मानस’क रचना केने छैथ।”
विवेक विहारी काका बजला-
“हुनकर जीवनी बुझल छह?”
ओना, तुलसीदासक सम्बन्धमे किछु-किछु बात जरूर बुझल अछि, मुदा अपन तँ कोनो दृष्टिकोण अछि नहि, जइ अनुकूल हुनकर जीवनीकेँ परेखब। मुदा विवेक विहारी काकाकेँ तँ अपन दृष्टिकोण छैन, जइ अनुकूल ओ बुझै छैथ। बजलौं-
“काका, ऊपरे-झापरे ने किछु-किछु बुझल अछि जे सहियो भऽ सकैए आ गलतियो भऽ सकैए, तँए अपनहि किछु कहियौ।”
विवेक विहारी काका बजला-
“बौआ श्याम, जँ हुनकर जीवनीकेँ प्रतीक रूपमे बुझबह तखन तँ सही बुझेतह। मुदा जँ साधारण नजैरिये बुझबह तँ ओ सही नहि बुझेतह। अखन एतबे राखह। एतबे बुझह जे झूठक झालि बजौनिहार सभ दिनसँ आबि रहल अछि, अखनो अछि आ आगूओ ताधैर रहत, जाधैर लोकक अपन चिन्तन-मनन नहि बनत।”
बजलौं-
“सएह?”
विवेक विहारी काका बजला-
“हँ, अखन सएह।”
शब्द संख्या : 2352, तिथि : 01 अप्रैल 2020
जगदीश प्रसाद मण्डल बिहार राज्यान्तर्गत मधुबनी जिलाक ‘बेरमा’ गामक निवासी छैथ। हिनक जन्म 05 जुलाइ 1947 इस्वीमे भेलैन। दू विषयसँ एम.ए. केलाक बाद ई अप्पन गाम-समाजक संग रहए लगला। पछाति ऐठामक रूढ़ि आ सामंती व्यवहार हिनका बेस प्रभावित केलकैन आ ई ओकर विरुद्ध लड़ाइमे व्यस्त भऽ गेला। दर्जनो केस-मोकदमा, दर्जनो खेप जहल यात्रादिमे हिनक जीवनक अधिकांश समय (लगभग 35 वर्ष) व्यतीत भऽ गेलैन। पछाति (प्राय: 2000 इस्वीक बाद) साहित्य लिखब शुरू केलाह जे अद्यतन नियमित छैथ। मण्डलजी अप्पन सहज सोच, सकारात्मक भाव तथा नव दृष्टि लेल मैथिली साहित्य जगतमे प्रसिद्ध ओ यशस्वी रचनाकार छैथ। ई अनेक पुरस्कार यथा- ‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’, ‘टैगोर साहित्य पुरस्कार’, ‘अमर शहीद रामफल मंडल राष्ट्रीय पुरस्कार’, ‘यात्री चेतना पुरस्कार’ सँ पुरस्कृत तथा अनेक सम्मान यथा- ‘विदेह सम्मान’, ‘कौशिकी साहित्य सम्मान’, ‘वैद्यनाथ मिश्र यात्री सम्मान, ‘कौमुदी सम्मान’, ‘बाबू साहेव चौधरी सम्मान’, ‘वैदेह सम्मान’, ‘राजकमल चौधरी साहित्य सम्मान’, ‘यात्री सम्मान’, ‘महाकवि पण्डित लालदास साहित्य गौरव सम्मान’, ‘मिथिला शिखर सम्मान’सँ सम्मानित छैथ।
प्रकाशित कृति:
कथा संग्रह: गामक जिनगी, क्रान्तियोग, सुभिमानी जिनगी, त्रिकालदर्शी, दिवालीक दीप, अप्पन गाम, कृषियोग, रहै जोकर परिवार, कर्ताक रंग कर्मक संग, गामक सूरत बदैल गेल, अन्तिम परीक्षा, फलहार, गुलेती दास, समयसँ पहिने चेत किसान आदि 80 कहानी संग्रह।
नाटक: मिथिलाक बेटी, कम्प्रोमाइज, कल्याणी, स्वयंवर आदि 12 नाटक/एकांकी।
कविता: इन्द्रधनुषी अकास, गीतांजलि, रहसा चौरी, सरिता, सुखाएल पोखरिक जाइठ, राति-दिन, तीन जेठ एगारहम माघ, कामधेनु आदि 12 पद्य संग्रह।
बाल साहित्य: नै धाड़ैए, बाल गोपाल, कुण्ठा, स्मृति शेष, नियति आ पुरुषार्थ, मुक्ति, प्रकृतिस्थ, समाजक ऐना, अप्पन सेवा अपने हाथ आदि।
नारी केन्द्रित पुस्तक: अर्द्धांगिनी, स्वयंवर, कल्याणी, मिथिलाक बेटी, सतमाए, बेटीक पैरुख, इज्जत गमा इज्जत बँचेलौं, सुचिता, श्रद्धा, सुनयना बेटी आदि।
निबन्ध-प्रबन्ध-समालोचना: पयस्विनी।
उपन्यास: मौलाएल गाछक फूल, उत्थान-पतन, जिनगीक जीत, जीवन-मरण, जीवन संघर्ष, बड़की बहिन, लहसन, पंगु, सुचिता, मोड़पर, संकल्प, अन्तिम क्षण आदि लगभग 20 उपन्यास।