Spread the love

रुहेलखंड क्षेत्र के प्रतिष्ठित कवियों में से एक डॉ महेश मधुकर जी की इस काव्यात्मक प्रस्तुति को मुझे डॉ बीरेंद्र जी ने सुझाया तब मैंने पूछा कि मुझे किताब कैसे मिलेगी तो उन्होंने डॉ महेश जी का नंबर भेजकर कहा बात करो वे पुस्तक भेज देंगे और नंबर मिलते ही जब मैंने उनसे बात की तो उन्होंने कहा कि मैं कल ही सप्रेम आपको पुस्तक भेज दूँगा और सच में ही तीन दिन के अंदर ही मुझे पुस्तक मिल गई। जब मैंने पुस्तक को पढ़ना शुरू किया तो मुझे समझ ही नहीं आया कि इतनी जल्दी खत्म कैसे हो गई।

काव्यात्मक शैली की पहली किताब थी जिसे मैं पढ़ रहा था और समझने की कोशिश कर रहा था की आखिर क्या सोचकर डॉ महेश मधुकर जी ने यह किताब लिखा होगा। तो इसके पीछे की मंशा को समझने के लिए कविता में जो दर्द उकेरा गया है उसे समझने की आवश्यकता पड़ेगी तभी समझ पाएंगे की इसके पीछे की भावना क्या रही होगी। एकलव्य एक ऐसी कृति है जो अपने कविता माध्यम से आपको अपने समय में लेकर जाती है और आप उन सभी दृश्यों को अपनी आँखों से देखना शुरू करते है ऐसा लगता है जैसे सामने चलचित्र चल रहा हो। यह महाभारत काल से सम्बंधित पौराणिक काव्य है जो गुरु शिष्य की महत्ता पर प्रकाश डालता है। इसके माध्यम से आप शिष्य का गुरु के प्रति समर्पण के साथ साथ एकलव्य का गुरु के प्रति असीम भाव भी देखने को मिलता है।

See also  गोपालदास ‘नीरज’: हिंदी और उर्दू शायरी

यह एक ऐसा खंडकाव्य है जो आपको शिक्षा और समता मूलक समाज के लिए संघर्ष की गाथा कहता है। एक-एक छंद में आपको करुणा, दया, प्यार और गुरुभक्ति भी मिलता है जो अटूट है। इसमें एक जगह कवि एकलव्य के पिता और समाज के बारे में कहते है:

स्वस्थ सुखी सारा समाज था,

जनता, राजा, रानी। 

भील हिरण्याधनु था शासक,

वीरव्रती सद  ज्ञानी।

इस छंद से कवि का आज के प्रति सामाजिक चेतना झलकती है की राजा और प्रजा को कैसा होना चाहिए।

इसी  भाग में कवि सामाजिक चेतना को स्पष्ट रूप से दर्शाते हुए लिखते है:

ऊँच -नीच गोरे – काले का,  

भेद नहीं था उनमें। 

और किसी के लिए तनिक भी ,

द्वेष नहीं था मन में। 

इस छंद में कवि का समाज कैसा हो रहा है इसे दर्शा पा रहे है और हम पुरे समाज को सोचना है की एक समाज के तौर पर हम कहाँ जा रहे है किस और जा रहे है कही हम किसी ऐसे ओर तो नहीं जा रहे है जहाँ से हम वापस आने का भी सोचे तो आ नहीं पाए।

See also  मिच्छामि दुक्कडम्: प्राकृत और जैन साहित्य

दो भागों में बँटे इस खंडकाव्य के पहले भाग पूर्वार्ध में ही जब एकलव्य गुरु द्रोण से शिक्षा पाने की जिद करते है तो कवि एकलव्य के पिता के शब्दों में सामाजिक पहचान से अपने बच्चे को निम्न छंदो से समझाने का प्रयास करते है:

कहा पिता ने पुत्र! तुम्हे वे,

कभी न अपनाएंगे। 

निम्न जाति का जान करें,

अपमानित ठुकरायेंगे। 

यह समस्या आज भी ज्यों की त्यों बनी हुयी है जिसका कोई तोड़ नहीं दिख रहा है लेकिन आपके बच्चे जैसे एकलव्य यह समझकर गुरु द्रोण से शिक्षा लेने जाता है वैसे ही आज के बच्चे भी समाज के कई अर्थो को लेकर इसी तरह का एक पिता की भूल समझते है जिसे वे सामाजिक रूप से वे तबतक नहीं समझ पाते जब वे खुद इसके भुक्तभोगी नहीं हो जाते है। आधुनिक पीढ़ी को इस किताब से जीवन मूल्यों को समझने में सहायता अवश्य मिलेगी अगर वे इन कविताओं में छिपे मर्म को समझ पाए तो वे इस तकनीक के युग में कही भी छल और कपट से छले नहीं जा पाएंगे। आज जिस तरह से युवाओं के मन में भटकाव है शायद इस छंद रूपी कविताओं को पढ़ने के बाद वे नए विश्वास और सृजनात्मकता से विश्व में कदम से कदम मिला कर चल पाएंगे।

See also  Katihar - कटिहार

मैं आज की युवाओं से आग्रह करूँगा की वे इस किताब को जरूर पढ़े और आत्मसात करने की कोशिश करें।
धन्यवाद
शशि धर कुमार